रविवार, 26 सितंबर 2021

                     प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति

        
 
                            

किसी भी देश की आध्यात्मिक,भौतिक उन्नति एवं उसकी सभ्यता, संस्कृति का उत्थान उस देश के नागरिको के सर्वाङ्गीण विकास के लिए उसकी शिक्षण पद्धति ही आधारशिला होती है। उपरोक्त तथ्य हमारे ऋषि, मुनी पहले से ही जानते थे ।इसीलिए गौतम,आपस्तम्भ, मनु से लेकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, भूतपूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्ण महोदय जी का मौलिक चिन्तन,विचार एवं शिक्षामनीषियों की एक अविछिन्न श्रृखला हमारे देश में प्रचलित रही, और आज भी प्रवाहमान है। जिनके स्वदिव्य ज्ञान  से निखिल विश्व प्रकाशित ही नही हो रहा,अपितु उनके जीवन दर्शन के द्वारा सत्य का मार्ग भी प्रदर्शित हो रहा है ।
 
शिक्षा का उद्देश्य- हमारी प्रचीन भारतीय ज्ञान परंपरा में शिक्षा का उद्देश्य ब्रह्म की प्राप्ति था “या विद्या सा विमुक्तये”। बालकों के व्यक्तिव विकास के लिए तथा उनके योग्य नागरिक निर्माण के मूलोद्देश्य में हि लौकक उद्देश्य अन्तर्निहित था । हर्बटस्पेंसर महोदय एवं जान ड्यूबी महोदय के जीवन का उद्देश्य ही क्रमशः शिक्षा एवं जीवन रहा। सभी का उद्देश्य “यावज्जीवमधीते विप्रः” इस सिद्धान्त में अन्तर्निहित था ।


प्राचीन भारतीय शिक्षासत्र्- प्राचीन वैदिककाल में सत्र् श्रावण पूर्णिमा से प्रारम्भ होता था एवं पौष माघ मास में समाप्त होता था। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार द्विज ब्रह्मण छात्रों का अध्ययन उपनयन संस्कार के बाद प्रारम्भ होता था।  छान्द्योग्योपनिषद् के अनुसार विद्यार्थी साक्षात् गुरु जी के साथ उनके स्थान  पर अर्थात गुरुकुल में जाते थे, गुरु उन बालकों को व्रतो का ज्ञान वेद,यम,नियम एवं देवताओं की उपासना इत्यादि का ज्ञान प्रदान करते थे।इसलिए छात्रों को अन्तेवासी भी कहा जाता है।आचार्य ही छात्रों के आध्यात्मिक एवं बौद्धिक पिता होते थे। जैसा कि अथर्ववेद में कहा गया है-“आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः”   याज्ञवल्क्य ऋषि ने “उपनीय ददद्वेमाचार्यः स उदाह्रतः”  अचार्य की परिभाषा की है।यास्क ऋषि के अनुसार-“आचारानाचिनोति,अर्थानाचिनोति,बुद्धि वा आचिनोति” । एक वेद का अध्ययन १२ वर्ष किया जाता था।“द्वादश वर्षाणि एकवेदे ब्रह्मचर्यं चरेत,प्रति द्वादश वा”  यह गौतम धर्मसूत्र मे कहा गया है।चारो वेद के अध्ययन के लिए ४८ साल का अध्ययन काल था।कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो आजीवन वेद का अध्ययन करते रहते थे। यही अध्ययन काल ब्रह्मचर्य के नाम से प्रसिद्ध था। इस प्रकार के अध्ययनकर्ता के लिए नैष्ठिक ब्रह्मचारी शब्द का प्रयोग व्यवहार मे लाया जाता था ।मनु केवल ३वेदों को हि मानते थे, अतः ३६ वर्ष ही अध्ययन का निर्धारित काल था-“षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रेवेदिकं व्रतम्” ।यह अध्ययनकाल ८वर्ष से प्रारम्भ होकर २५वर्ष तक चलता था। आश्रमों में ब्रह्मचारियों के भावी जीवन का निर्माण होता था। जैसा कि अथर्ववेद में प्राप्त होता है- 


                                       ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति ।
                                       ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्।
                                        ब्रह्मचर्येण   देवा      मृत्युमुपाघ्नत। 

अध्ययन काल-आपस्तम्ब ऋषि के मतानुसार ब्रह्मचर्य व्रत का आरम्भ ब्रह्मण कुमार के लिए ८वर्ष एवं बसन्तऋतु में किया जाना चाहिए,इसी प्रकार क्षत्रिय कुमारों के लिए ११ वर्ष एवं ग्रीष्मऋतु में,वैश्यकुमारों के लिए १२वर्ष शरद् ऋतु होता है। यदि किसी कारण विशेष से निर्धारित समय में ये संस्कार नही होते थे, तब इस स्थिती वर्तमान अवधि की दुगुनी अवधी तक उस बालक को शूद्र माना जाता था-“नातिषोडशवर्षमुपनयति,प्रसृष्टवृषणो ह्योष वृषलीभूतो भवति”  एवं सावित्री के वचनों के अधिकार से भी वञ्चित रहता था। कोई भी व्यक्ति अपनी कन्या का विवाह उस घर में नही करता था।इस प्रकार के कठोर समाजिकदण्ड के भय से  बालकों की शिक्षा प्रायः शत् प्रतिशत थी।निरक्षरता के लिए कोई स्थान नही था।
                                         वेदाध्ययन उपनयन,सावित्रीव्रत एवं सावित्री वचनों से ही प्रारम्भ होता था। ब्रह्मण बालक “ओ३म् भूर्वुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ओम्”  विश्वमित्र गायत्री मंत्र से दीक्षित होते थे। क्षत्रिय बालक मेघातिथि ऋषि के मतानुसार त्रिष्टुपछन्द हिरण्यस्तूपीय गायत्रीमंत्र से दीक्षित होते थे-
                              आकृष्णेन रजसे वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।
                              हिरण्येन सविता रथेन याति भुवनानि पश्यन् । 
इसी प्रकार वैश्य बालक अश्वालायन गृहसूत्रानुसार जगतीछन्द अधोलिखित मंत्र से दीक्षित होते थे-
विश्वारुपाणि प्रतिमुञ्चते कविः प्रसावीद् भद्रं द्विपदे चतुष्पदे।
विनाकमख्यत्  सविता वरेण्यऽनुप्रयाणमुषसो विराजति ।। 
यह व्रत पारस्कर ऋषि के मतानुसार एक वर्ष छः माह २४ दिन अथवा तीन दिन तक चलते थे।
ब्रह्मचारी (विद्यार्थी) वेषभूषा- ब्रह्मचारियों के लिए एक विशिष्ट वेषभूषा निर्धारित थी, उसी भेषभूषा से उनका परिचय भी प्राप्त होता था। ब्रह्मण ब्रह्मचारी के लिए उपर का वस्त्र कृष्ण मृग चर्म निर्धारित थी, इसी प्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी बालकों के लिए उपर का वस्त्र रौरव मृग की छाल निर्धारित थी,एवं वैश्य ब्रह्मचारी के लिए अजा(बकरे) की छाल उपर के वस्त्र के रुप प्रयोग की जाती थी ।किन्तु पारस्कर ऋषि के मतानुसार सभी वर्णो के लिए गोचर्म धारण करने का समानाधिकार प्राप्त था-सर्वेषां च गव्यम् । वशिष्ठधर्मसूत्रानुसार-“कृष्णाजिनमुत्तीयं ब्रह्मणस्य रौरवं क्षत्रियस्य,गव्यं वस्ताजिनं वा वैश्यस्य” ।
             मनुमतानुसार ब्रह्मण ब्रह्मचारी का अधोवस्त्र(धोती) सन की, क्षत्रिय ब्रह्मचारियों का अधोवस्त्र छौम(रेशमी) एवं वैश्य का अधोवस्त्र विकम का था। आपस्तम्ब ऋषि के मतानुसार ब्रह्मण ब्रह्मचारियों के वस्त्रों का रंग लाल(काषायम्) क्षत्रिय के वस्त्रों का रंग माञ्जिष्ठ एवं वैश्य के वस्त्रों का रंग हरिद्र(पीला) होना चाहिए।
                              वन में निवास करते हुए ब्रह्मचारी अपरार्क ऋषि के मतानुसार अपनी रक्षा के लिए, वाराह के मतानुसार वेदत्रयी की रक्षा के लिए,मनुमतानुसार सत्य के अन्वेषण में संलग्न ब्रह्मचारी को दण्ड धारण करना आवश्यक था। वेदत्रयी की रक्षा के लिए ब्रह्मचारियों के लिए मेखला भी अपेक्षित थी। ब्रह्मण के लिए मौञ्ज क्षत्रिय के लिए ज्याया एवं वैश्य के लिए सन के द्वारा निर्मित मेखला निर्धारित थी (“मौञ्जीज्यामौर्वीं सौत्र्यो मेखला क्रमेण”) ।
                                                          ब्रह्मचारियों को यज्ञोपवीत धारण करना भी आवश्यक था,यह नवतन्तु से निर्मित होता था,और नवदेव शक्तियों का प्रतीक था।इससे देवता ब्रह्मचारियों को अपनी शक्तियाँ प्रदान करते थें। इनके  नाम क्रमशः ओङ्कार,अग्नि,नाग,सोम,पितर,प्रजापति,वायु,सूर्य एवं सर्वदेव है। यज्ञोपवीत क्रमशः ब्रह्मण का कपास से,क्षत्रित का सन से और वैश्य का अज(बकरे) के चर्म से निर्मित होता है।
                                                         ब्रह्मचारी अपने कुल अथवा गुरु की आज्ञानुसार मुण्डन,जटाधारण,शिखाजटाधारण करते थे-    “मुण्डजटिलशिखाजटश्च” ।पारस्कर गृह्यसुत्रानुसार शिष्यत्व करने के पूर्व आचार्यगण ब्रह्मचारियों से पूछते थे-“कस्य त्वं ब्रह्मचार्यसि ? भवत इत्युच्यमाने इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यसि,अग्निराचार्यस्तव”।इसका अभिप्राय है आर्यो में सबसे श्रेष्ठ शक्तिशाली इन्द्र,अग्नि देवता है ।
विद्या के प्रकार-प्रचीन वैदिक परम्परा में विद्या दो प्रकार की थी-परा,अपरा जिसमें परा विद्या सर्वोच्च थी,जिससे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती था एवं “तत्त्वमसि” इस वेदान्तवाक्य का भी अवगमन इसी से होता था, यह पारलौकिक विद्या थी।लौकिक विद्या अपरा है। इसके छः अङ्ग है। चार वेद,धर्मशास्त्र,मीमांसा,तर्कशास्त्र पुराण है,इसी में अष्टादश शिल्पकला एवं ६४ कलाएँ अन्तर्निहित है।
ब्रह्मचारी के कर्तव्य-ब्रह्मचारी ब्रह्ममुहुर्त में पक्षियों के कलरव के साथ दिन का प्रारम्भ करते थे।पारस्कर ऋषि के मतानुसार ब्रह्मचारी प्रातःकाल अचार्य जी की नित्यकर्म का सामग्री प्रस्तुत करने के बाद होम के लिए समिधा लेने के वन में जाते थे। इस कार्य में वृक्षों को किसी भी प्रकार की क्षति न हो इस बाद का विशेष ध्यान  दिया जाता था। ब्रह्मचारी आश्रम के लिए भिक्षाटन का कार्य भी करते थे।भिक्षाटन विनयपूर्वक किया जाता था।समावर्तन संस्कार के बाद भिक्षाटन पूर्णतया निषिद्ध था।जैसा की बौधायन ऋषि ने भी कहा है-“समावृत्तस्य भिक्षा शुचिकरा” ।छात्र गुरु के सानिध्य में रहते थे,अतः आचार्यकुलवासी अन्तेवासी कहे जाते थे।गुरु की सेवा करके ज्ञान प्राप्त करना गुरु के लिए गोचारण भी करने अपेक्षित माना जाता था “गुर्वथं      गोचारणमप्यपेक्षितमासीत्” ।जैसा की शतपथ ब्रह्मण में भी उल्लोखित है।सत्यकाम जाबाल ने अपने गुरु से वचन लिया था कि जब तक ये ४०० गौवें १हजार नही हो जाती तबतक मैं आश्रम में वापिस नही आऊगाँ। ब्रह्मचारी के लिए दिन में सोना,जलक्रीडा,सुगन्धित तैल इत्र इत्यादि प्रयोग करना,गीज,वाद्य,लृत्य,मधु मांस आदि एवं काम,क्रोध,लोभ,मोह,स्त्रीप्रेक्षण,जुआँ खेलना ये सब कार्य पूर्णरुप से निषिद्ध थे ।
अवकाश (अनध्याय)-  प्रतिमास ४दिन अवकाश होता था, प्रतिपदा, अष्टमी,चतुर्दशी,एवं अमावस्या जैसा कि कहा गया है- 
                                     ह्यन्त्यष्टमी ह्युपाध्यायं हन्ति शिष्यं चतुर्दशी।
                                     हन्ति पञ्चदशी विद्यां तस्मात् पर्वणि वर्जयेत ।। 
प्रतिपदा पठन के लिए अत्यन्त हेय थी “प्रतिपत्तपाठविवर्जिता”।वाल्मीकी रामायण के सुन्दरकाण्ड में भी कहा गया है “प्रतिपत्पाठशीलस्य विद्येव तनुतां गता” ।इनके अतिरिक्त बाह्य आक्रमणकाल,शान्तिकाल,दस्युओं के उपद्रव के समय,किसी के आकस्मिक निधन के समय, असमय बरिशकाल,विद्युत, भूकम्प अतिवृष्टिकाल तथा सियांर,कुत्ते के रोनें के समय पाठशाला में अनध्याय(अवकाश) होता था। यदि कोई छात्र कक्षा में अनुपस्थिय होता था तो उस दिन भी उस कक्षा में अवकाश होता था। अपवित्र दशा में भी वेदों का अध्ययन वर्जित था। ऐसी अवस्था में बालक को शीघ्र अवकाश दे दिया जाता था।वर्तमान समय के अनुसार प्रचीनकाल में भी अवकाश के लिए बच्चें लालायित रहते थे। जैसा कि भवभूति जी ने अपने ग्रन्थ उत्तमराचरितम् में कहा है-“स्वागतमनेकप्रकाराणां जीर्णकर्चानामध्यायकारणानाम्” ।इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी समय में विद्याध्ययन निषिद्ध नही था । 
                                     नानध्यायोऽस्ति चाङ्गेषु नेतिहासपुराणयोः।
                                     न धर्मशास्त्रेष्वन्ये पर्वण्येतानि वर्जयेत ।। 
अध्यापकों के प्रकार एवं कर्तव्य- अध्यापक ३ प्रकार के होते थे-१- गुरु २- आचार्य ३- उपाध्याय जो बालक का गर्भाधान से लेकर समस्त संस्कार करवाते थे एवं वही वेदों का भी अध्ययन करवाते थे उन्हे गुरु कहा जाता था, प्रायशः पिता ही ऐसे गुरु होते थे ।
 
                             स गुरुः यः क्रियाः कृत्वा वेदमस्मै प्रयच्छति ।
                            उपनीय   ददद्  वेदमाचार्यः  स   उदाहृतः।। 
मनु के मतानुसार जो छात्रों को वेद, वेदाङ्गो का अध्ययन करवाते थे, उन्हे आचार्य कहा जाता था। “उपनीय तु यः कृत्स्नम वेदमध्यापयेत् स आचार्यः” । इन पुरुषों को अतिगुरु भी कहा जाता था। माता-पिता एवं आचार्य को गुरुओं में श्रेष्ठ माना जाता था “आचार्यः श्रेष्ठो गुरुणाम्” । उपाध्याय केवल वेदों के एक अङ्ग को पढाते थे।“एकदेशमुपाध्यायः” । विष्णुमतानुसार जो सशुल्क वेदों का अध्यापन करते थे,उन्हे उपाध्याय कहा जाता था।मुण्डोपनिषद् के अनुसार आचार्य वही हो सकते है, जिनके कुल में ही वेदाध्ययन की परम्परा रही हो-“श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्”  ।
अब्रह्मणाध्यापक- आपत्तिकाल में  यदि ब्रह्मण अध्यापक प्राप्त नही होते तो अब्रह्मण भी वेदाध्ययन करा सकते थे।उपनिषद्काल में अनेक ऐसे राजर्षि हुए जो अपने ब्रह्मज्ञान से प्रसिद्ध हुए।ये ब्रह्मण ब्रह्मचारियों को भी वेदाध्ययन करवाते थे। उदाहरण के  लिए विदेहराज जनक,मगधराज अजातशत्रु,पाञ्चाल के अश्वपति अथवा जाबालि ये वेदों को जानने के लिए प्रसिद्ध थे। प्रोफेसर मैक्समूलर महोदय इस विषय में भ्रमित थे अतः उन्होनें सिर्फ ब्रह्मणों को ही आचार्य होना स्विकार्य किया है।सभी धर्मसूत्र बौधायन,आपस्तम्ब,गौतम,मनु सभी ने आपत्तिकाले में अब्रह्मण से विद्या अध्ययन करने की अनुमति प्रदान की हुई है “आब्रह्मणादध्ययनमापदि” ।परन्तु प्रायशः ब्रह्मण आचार्यों से हि शिक्षा ग्रहण करने का नियम था।शिक्षार्थी शिक्षाकाल में उसी आदरपूर्वक,श्रद्धापूर्वक व्यवहार करते थे जैसे ब्रह्मण आचार्य के साथ करते थे। ब्रह्मचारी आचार्य का आज्ञा का पालन करते थे उनकी सेवा करते थे।“अनुव्रज्या च शूश्रूषा यावदध्ययनं गुरोः” ।ऐसे  आचार्यों के  उदाहरण प्राप्त होते है जो ब्रह्मण होकर भी धनुर्वेद सदृष वैदिक विषयों का आचार्यत्व करते थे।जैसे महाभारत महाकाव्य में गुरु द्रोणाचार्य ने कौरव-पाण्डवों को धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान की है।
गुरु-शिष्य सम्बन्ध- गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र के समान दिखता था।“पुत्रभिवैनमभिकांक्षति” ।
वैखानसधर्मसूत्रानुसार ब्रह्मचारी को आशीर्वाद प्रदान करना आचार्य का अनिवार्य विधान माना जाता था।“आयुस्मान् भव सौम्य इत्येवं शंसेत् अनार्शीवादी नाभिवन्द्य” । भगवान पतञ्जलि जी ने भी “पुत्रीयति” शब्द का प्रयोग किया है।गुरु ही विद्यार्थी के संरक्षक होते थे।वह छत्रों मार्गदर्शन करते थे। छात्र के बीमार होने पर उसकी चिकित्सा,परिचर्या का प्रबन्ध भी गुरु ही करते थे।ग्रहस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो चुके शिष्य शङ्कासमाधान अथवा अतिरिक्त ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरि के पास पुनः आश्रम आ सकते थे। गुरु भी विद्याविषयक कोई भी रहस्य छात्रों से गोपनीय नही रखते थे।जैसा कि प्रश्नोपनिषद् में अपने शिष्य प्रति भरद्वाज ऋषि ने कहा “नाहमिदं वेद।यद्यवेदिषं कथं ते नवक्ष्यम्”। अतः श्रोत्रिय आचार्य पुत्रहीन होने पर भी पुत्रहीन नही माने जाते थे,क्योम कि उनके अनेक शिष्य पुत्र सदृश ही थे।“तस्माच्छ्रोत्रियमनूचानमव्रजोऽसीति न वदन्तीति” ।अतः शिष्य को गुरु का पितृतर्पण,श्राद्ध के समान अधिकार धर्मशास्त्र ने प्रदत्त किया हुआ है।गुरु की केवल विद्वता ही श्रेष्ठ नही मानी जाती थी अपितु व्याख्यानशक्ति की भी अपेक्षा हेती थी। महाभारत में अध्यापकों के गुणों के बारे में अत्यन्त सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है-
                                         प्रवृत्तवाक्   चित्रकाय  ऊहवान प्रतिभावान ।
                                        आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ।। 
छात्र विद्या प्राप्ति के लिए गुरु उपर ही आश्रित थे।जैसा की नारद जी की उक्ति से स्पष्ट होता है-
                               पुस्तकप्रत्ययाधीतं  नधीतं  गुरुसन्निधौ।
                                भ्राजते न सभामध्ये जारगर्भ इव स्त्रियः।।
ब्रह्मचारियों के लिए  अध्यापक परिवर्तन उचित नही माना जाता था।जो छीछ गुरुकुल में बहुकाल तक शिक्षा ग्रहण करते हुए बाद में किसी  अन्य गुरु के पास जाकर शिक्षाग्रहण करते थे उन्हे “तीर्थकाक” की पदवी दी जाती थी। महर्षि पतञ्जलि जी ने ऐसा ही महाभाष्य में कहा है-“यो गुरुकुलं गत्वा न चिरं तिष्ठति स उच्यते तीर्थकाक” ।
आचार्य अनेक बार इतना स्नेह प्रदान करते थे कि अपनी कन्या का विवाह भी शिष्य के साथ कर देते थे। बौद्धकाल में भी ये परम्परा देखने को मिलती है-सीलविमन सजातक(सं ३०५) में प्रथम पुष्टि मिलती है। पाश्चात्य स्मृतिकारों ने इस प्रथा का विरोध अपने अपने मतों के माध्यम से किया, क्यो कि छात्र-गुरुकन्या सम्बन्ध भाई-बहन का होता है।
निःशुल्क शिक्षा- समान्यरुप से उस समय के आचार्य निःशुल्क शिक्षण ही करते थे।परन्तु जो ब्रह्मचारी समावर्तन संस्कार करते थे, उन्हे गुरुदक्षिणा देने का प्रावधान था, किन्तु उसके लिए कोई बन्धन नही था। जैसा कि रघुवंश महाकाव्य के वरतन्तु कौत्स कथानक से स्पष्ट हि होता है। आचार्य  अध्यापन   को हि अपना धर्म मानते थे।अध्यापन आय का स्त्रोत नही था।इसीलिए शिष्य अपने आप को ऋषि-ऋण से मुक्त नही मानते थे।विष्णुमतानुसार समावर्तन से पहले दक्षिणा ग्रह करना चाहिए। मनु ने भी यह स्विकार किया है।कविकुलगुरु कलिदास ने वृत्ति का  साधन विद्या को स्विकार नही किया है-“यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति” ।
दण्ड- प्राचीनकाल में शिक्षाक्षेत्र में अनुशासनहीनता के उदाहरण वर्तमान समय का अपेक्षा अत्यल्प ही होते थे।गुरु पहले विनयपूर्वक शिष्य को समझाते थे फिर उसके अन्दर भय पैदा करते थे अन्त में दण्ड प्रदान करते थे। शीतकाल में ठण्डे पानी से स्नान करवा देना इस प्रकार के दण्ड प्रदान किए जाते थे।कभी -कभी आश्रम से निष्कासन भी कर देते थे।यदि इस प्रकार के दण्ड से कोई प्रभाव नही पडता था तब शारीरिक दण्ड देते थे। शरीर के पृष्ठभाग में छडी से दण्ड दिया जाता था, कोमव अङ्गों में कदापि दण्ड नही दिया जाता था।यदि कोई आचार्य छात्रों के कोमल अङ्गों में दण्ड देते थे तो मनुगौतम मतानुसार उन्हे राजदण्ड से दण्डित किया जाता था।“पृष्ठतस्तु शरीरस्य नोत्तमाङ्गं कदाचन” ।यदि कोइ उदण्डी ब्रह्मचारी गुरु के साथ प्रतिशोध लेता था तब याज्ञवल्क्यमतानुसार कठोर राजदण्ड भोगना पडता था।
अध्यापन विधि- प्राचीनकाल में शिक्षा वैयक्तिक थी। प्रायः प्रत्येक ब्रह्मचारी पृथक पृथक शिक्षा ग्रहण करते थे। अतः किसी भी आचार्य के पास १२ से अधिक छात्र नही होते थे। फलस्वरुप प्रत्येक छात्र के व्यक्तिव का पूरण विकास आचार्य द्वारा किया जाता था।संस्कृत व्याकरण के बालमनोरमाकार ने पाणिनि जी के द्वारा प्रयुक्त शब्द अध्ययन की व्याख्या निम्न प्रकार से की है- “गुरुमुखादक्षरानुपूर्वी ग्रहणम्”।वेद ही पाठ्य विषय थे, पाठन की विधि प्रायः कण्ठस्थीकरण ही थी।भाष्यकार भगवान पतञ्जलि जी ने “अधीते”  इस शब्द का भाव कण्ठाग्रपठन विधि ही किया है।किन्तु वेद के अतिरिक्त विषयों  का अध्यापन मौन एवं व्याख्या विधि  से किया जाता था। भाष्यकार भगवान पतञ्जलि जी ने पठन की दो विधियां प्रतिपादित की है-१-उच्चैः पठनम् २-मौनं पठनम्। अतः पठन का  यह विभाजन आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों को यही से प्राप्त होता है। आचार्य मंत्रों को सस्वर पाँच बार उच्चारित करते थे,जैसा कि काशिकावृत्ति के प्रयोग “पञ्चकोऽधीतः”से स्पष्ट होता है। इसके बाद ब्रह्मचारी उसका अनुवर्तन करते थे।ओऽम्  इस उच्चारण के बाद पाठ प्रारम्भ करते थे। आचार्यों के शुद्ध उच्चारण पर हि छात्रों को शुद्ध उच्चारण प्राप्त होता था।एख अशुद्धि करने वाले छात्रों को “एकान्यिक” कहा जाता था। इस प्रकार क्रमशः १४अशुद्धियों तक की गणना की जाती थी।अध्ययन के ४ क्रम होते थे- श्रनणम्,मननम्,निधिध्यासन, एवं  उपासना । छात्र अपने अपने प्रश्नों/काठिन्यनिवारण को आपस में प्रश्न करके हि हल करते थे।जैसा कि श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है-“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्ननेन सेवया”।वाचस्पति मिश्र महोदय ने हरवर्ट महोदय के पूर्व ही पाँच क्रम निर्धारित किये थे-
                                     शुश्रूषा श्रवणं  चैव  ग्रहणं  धारणं  तथा।
                                     ऊहापोहार्थविज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणाः ।।
वैदिककाल में लिपिज्ञान न होने का कारण कण्ठस्थीकरण का ही महत्व था। वेदों के कण्ठस्थीकरण में किसी भी प्रकार की अशुद्धि न हो इसके लिए अष्टविकृतियों के माध्यम से स्वाध्याय किया जाता था । अष्टविकृतियां क्रमशः-पदम् क्रम,जटा,शिखा,माला,रेखा,रथ,दण्डघन है।यदि कही शङ्का होती थी तो अन्य विकृति के माध्यम से उसका समाधान कर लिया जाता था।वैदिकों के मंत्रोच्चारण का अत्यन्त महत्व था इसीलिए प्रातिशाख्यों की रचना की गयी।मंत्रों को केवल कण्ठस्थीकरण करना हि पर्याप्त नही था अपितु उनका अर्थज्ञान की भी अत्यन्त आवश्यकता थी।इसीलिए आचार्य यास्क ने निरुक्त की रचना किया।स्वाध्यायकाल साधना,तपस्या का काल माना जाता था,अतः ब्रह्मचारी विद्या के प्रति पूरी तरह से परिनिष्ठित होते थे। प्रत्येक ऋषिकुल अथवा आश्रम में आचार्य की अनुपस्थिति होने पर आचार्यपुत्र अथवा वरिष्ठ शिष्य  वर्तमान यूरोपीय सभ्यता के अनुसार “मानीटर” ही छात्रों को अध्यापन करवाते थे।
परीक्षा- वैदिककाल में परीक्षा मौखिक थी। अशुद्ध उच्चारण के अनुसार हि श्रेणी का विभाजन किया जाता था जैसा कि पूर्व में कहा गया है।प्रतिदिन गुरु नया पाठ तभी पढाते थे जब पूर्व दिवस के पाठ का पूर्ण अभ्यास हो गया हो। अध्ययन के समाप्ति के बाद अन्तिम परीक्षा होती थी। जैसा कि जीवक के उदाहरण से स्पष्ट होता है। जीवक तक्षशिला विश्वविद्यालय में ७ वर्ष तक आयुर्वेद का  अध्ययन करते है,अन्त में आचार्य उन्हे कुदाल देकर जंगल में भेजते है और बोलते है जंगल में जाकर कोई ऐसा पौधा लेकर आओ जिसमें कोई औषधीय गुण न हो जीवक समस्त पौधों का निरीक्षण करनें पर प्राप्त करते है कि ऐसा कोई पौधा हि नही है जिसमें औषधीय गुण न हो, अर्थात प्रकृति के सभी वृक्षों में औषधीय गुण विद्यमान होता है। प्रायशः इसी प्रकार की प्रयोगात्मक परीक्षा वौदिक काल होती थी।मध्ययुग में शलाका परीक्षा का भी प्रचलन प्राप्त होता है। जिस स्थल पर शलाका का स्पर्श  होता   था छात्र उस स्थान का प्रतिपादन करते थे।
नारीशिक्षा-  प्राचीनकाल में बालिकाओं की शिक्षा अति उन्नति थी, एवं समाज में उनका स्थान भी  विद्यमान था। शिक्षणविषय में बालक-बालिकाओं में कोई भेद नही था सम्मिलित शिक्षा प्रचलित थी। यद्यपि छात्र-छात्रा पृथक पृथक छात्रावासों में निवास करते थे।पाणिनि सूत्र “छत्र्यादयः शालायाम्” इससे भी भासित होता है कि सहशिक्षा क् प्रचलन था।पति के साथ पत्नी भी नियमपूर्वक यज्ञो  में भाग लेती थी। पाणिनि अनुसार  भार्या की संज्ञा “पत्नी”  इसी कारण से हुई।यज्ञ में पत्नी के संयोग होना अनिवार्य है। पत्नी विहीन मनुष्य को यज्ञ का अधिकार प्राप्त नही है।“अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः” ।उपनीत को हि यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त है अतः कन्याओ का भी उपनयन संस्कार होता था।एवं वह भी ब्रह्मचर्य का पालन करती थी।“ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्” ।ऋषियों के समान ऋषिकाएं भी वेदमंत्रों की दृष्टा मानी जाती थी।इस प्रकार की २३ ऋषिकाओं का नाम ऋग्वेद,सामवेद में प्राप्त होता है। जिसमें प्रमुख  रोमशा,लोपामुद्रा,अपाला,विश्ववारा,घोषा,कद्रू,वौलोगी,सिक्ता,उर्वशी  आदि प्रसिद्ध थी।यम स्मृति मं कन्याओं के  उपनयन एवं सावित्रि वाचन का उल्लेख प्राप्त होता है-
                                        पुरा कल्प तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते ।
                                                              अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा ।।
वैदिककाल में स्त्रियां विदुषी होती थी। विदेहराज जनक की सभा में गार्गी ने गूढ दार्शनिक प्रश्न पूछे तब याज्ञवल्क्य ऋषि ने कहा-“अनतिपृश्न्यां वै दैवतामतिपृच्छसि”।याज्ञवल्क्य जी की पत्नी मैत्रेयी धन आभूषण,संसारिक पदार्थों को हेय मानती हुई बोली “येनाहं नामृता स्यात्, किं तेनाहं कुर्याम्”।महाकाव्य के समय कुन्ती अथर्ववेद की पण्डिता हुई। कौश्ल्या-तारा इत्यादि विदुषियों का नाम भी हमें प्राप्त होता है।
                        ब्रह्मचारिणियों को दो वर्गो में विभक्त किया जाता था-सद्योवधू,ब्रह्मवादिनि। सद्योवधू केवल गृहकार्य एवं संसारोपयोगी मंत्रों का अध्ययन करती थी।एवं ये नृत्य,गीत,वाद्य, गृहविज्ञान विषयों में निपुण होती थी। ब्रह्मवादिनि पूर्ण वेदाध्ययन के बाद हि विवाह करती थी।कई तो ऐसी भी होती थी जो जीवन भर विवाह ही नही करती थी।अविवाहिता जीवन हि निर्वाह करती थी, जैसे कुशध्वज की कन्या वेदवती।ये अध्यापन कार्य भी करती थी। आचार्या,उपध्याया,अध्यापिका इत्यादि शब्द हमें पाणिनिकृत व्याकरण सूत्रों में देखनें को मिलता है।
 समावर्तन संस्कार- २५ वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य पूर्णता की ओर जाता है,इसी समय छात्र शुभ मुहुर्त में गृहस्थ जीवन को प्रारम्भ करता था।किन्तु ग्रहस्थ धर्म प्रवेश के पूर्व समावर्तन संस्कार का अनुष्ठान किया जाता था। मध्याह्न में अध्ययन कक्ष से बाहर जाकर क्षौर कर्म करवाते थे,साथ में जटा नखादियों का भी कर्तन करवाते थे। अनन्तर सुगन्धित पवित्र जल से स्नान करके एवं नूतन नये वस्त्र,कुण्डल,काञ्चन,छत्र,पाहन आदि धारण करके स्नातक कक्ष में जाते थे। समावर्तन कराने वाला ब्रह्मचारी उस समय मालाओं से अलंकृत रहता है,अतएव मनु ने “स्त्रग्वि”  इस शब्द का प्रयोग किया।स्नातक अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है “महद्वै एतदभूद् यः स्नातकः”।इन परिधानों के साथ बौधायन ऋषि के अनुसार रथ में अथवा हाँथी पर सवार होकर सभामण्डप में आते थे। इस दौरान ब्रह्मचारी को आचार्य द्वारा अनुशासित जीवन के लिए उपदेश देते थे। तैत्तिरीयोपनिषद में इस प्रकार के अनुशासन प्राप्त होते है-“सत्यं वद धर्मं चर,स्वाध्यायान्मा प्रमदः,मातृदेवो भव,पितृदेवो भव,आचार्यदेवो भव,अतिथिदेवो भव,एष आदेशः,एष उपदेशः,एतदनुशासनम्”। 
शिक्षा प्रसार के साधन-शिक्षा प्रसार के कुछ मुख्य साधन है। जिसमें सर्वप्रथम ऋषिकुल अथवा आचार्य का घर था।जहाँ अध्यापक एवं छः छात्र होते थे।साधनों में द्वितीय साधन भ्रमणशील विद्वान है,ये यत्र तत्र पर्यटन करके उपदेश देते थे।तृतीय साधन परिषद् है जहाँ दश-बारह विद्वान मिलकर शिक्षा के किसी जटिल समस्या का समाधान निकालते थे।अद्यतन के  समान साहित्य,विज्ञान इत्यादि की परिषदें होती थी। चौथा साधन राजा के द्वारा आयोजित सम्मेलन होते थे। ऐसे सम्मेलन में श्रेष्ठ विद्वान विचार विनिमय के लिए  आमंत्रित किए जाते थे।ऐसे सम्मेलनों का वर्णन बृहदारण्योपनिषद् ,शतपथब्रह्मण ग्रन्थों में  प्राप्त होता है।ऐसा हि सम्मेलन विदेहराज जनक ने अश्वमेघ में आयोजित किया था। जहाँ कुरु-पाञ्चाल देश के सभी मनीषी विद्वान आमंत्रित किए गए थे। यही गार्गी-मैत्रेयी संवाद हुआ था।इस सम्मेलन मे याज्ञवल्क्य ऋषि विजयी हुए थे। एवं राजा जनक ने उन्हें सहस्त्र(हजार) स्वर्ण मण्डित गौवें दी थी ।उपरोक्त साधनों के अतिरिक्त मठाश्रम,विहार,संङ्घार के माध्यम से भी शिक्षा का प्रसार होता था। आश्रमों में कण्व,भारद्वाज,दिवाकर आदि के आश्रम प्रसिद्ध थे ।विहारों में नालन्दा,तक्षशिला,विक्रमशिला, सारनाथ आदि प्रसिद्ध थे।विहारों में द्वार पण्डित होते थे,जो से प्रवेश लेने वाले छात्रों कि परीक्षा लेते थे।परीक्षा अत्यन्त उच्च होती थी।इसमें ८०प्रतिशत छात्र असफल हो जाते थे।विहारों की शिक्षा व्यवस्था,प्रशासन व्यवस्था महास्थ के अधीन होती थी। उनकी सहायता के लिए समितियाँ होती थी। १६ साल से अल्प अवस्था के छात्रों का प्रवेश नही होता था।नालन्दा विहार धर्म एवं दर्शन के लिए प्रसिद्ध था।इसी प्रकार तक्षशिला विहार आयुर्वेद,धनुर्वेद शिक्षा के लिए प्रख्यात था।विहार ये प्रायः विश्वविद्यालय के समान होते थे।शिक्षण की प्रणाली विचारात्मक होती थी।इनका भरण-पोषण  राजा के द्वारा किया जाता था। ये विहार बौद्ध-विद्या के केन्द्र थे।ज्ञानार्जन के लिए विदेश से भी विद्वान आते थे।इसी प्रकार विदेशी राजा भी भारतीयों के अपने यहाँ आमंत्रित करते थे।बौद्धदर्शन  एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार इसी प्रकार से दक्षिणिपूर्व एशिया-तिब्बत,चीन,जापान,सिंहल आदि देशों हुआ।
ब्रह्मण विद्या केन्द्र-काशी,मिथिला,कश्मीर,नवद्वीप आदि ब्रह्मण विद्या के केन्द्र थे।इनके अन्तर्गत वेद,दर्शन,व्याकरण आदि विषयों का अध्ययन किया जाता था।काशी व्याकरण शिक्षा के लिए,मिथिला न्यायतन्त्र शिक्षा के लिए तथा नवद्वीप-तर्क शिक्षा के लिए प्रसिद्ध थे।
अध्याहार- ब्रह्मणों के लिए प्रदत्त ग्राम-ग्राम अग्रहार के रूप में जाने जाते थे।ग्राम की आय विद्या प्रसार कार्य में उपयोग की जाती थी। जैसे-कर्नाटक का कदियूराग्रहार मैसूर का सर्वज्ञपुराग्रह।
टोला या पाठशाला-ये बङ्ग,विहार,उत्कल,मगध,काशी,कोशल आदि के बाद देश में स्थापित टोला या पाठशालाएँ होती थी।यहाँ एक अध्यापक अध्यापन कार्य करते थे। इस पद्यति के माध्यम से शिक्षित स्नातकों के बारे में मनु ने कहा है-
एतद्देशप्रसूतस्य       सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् सर्वदेशेषु मानवाः।।


 

[1] अथर्ववेद

[1] याज्ञवल्क्य स्मृति

[1] निरुक्त (यास्कविरचित)

[1] गौतम धर्मसूत्र

[1] मनु स्मृति (३/१)

[1] अथर्ववेद(११/५/१७-१९)

[1] जैमनीगृहसूत्र (१-१२)

[1] ऋग्वेद (३/६२/१०)

[1] ऋग्.(५/८१/२)

[1] ऋग्.(५/८१/२)

[1] वसिष्ठधर्मसूत्र(१/२/१४)

[1] गौतम धर्मसूत्र

[1] गौतम धर्मसूत्र (१/१९)

[1] बौधायन स्मृति (२/१/६३)

[1] छान्दोग्योपनिषद्(४/४/५)

[1] वाल्मीकीरामायण सुन्दरकाण्ड

[1] उत्तररामचरितम्

[1] कूर्मपुराण

[1] याज्ञवल्क्य स्मृति(१/३४)

[1] वसिष्ठधर्मसूत्र(३/२)

[1] गौतम धर्मसूत्र(२/५७)

[1] याज्ञवल्क्य स्मृति(१/३५)

[1][1] मुण्डोपनिषद्(१/२/१२)

[1] बौधायनधर्मसूत्र (२/४०)

[1] मनुस्मृति (२/२४१)

[1] आपस्तम्बधर्मसूत्र (१/२/८/२४)

[1] वैखानसधर्मसूत्र (२/१०/९)

[1] वसिष्ठध.(२/१०)

[1] महाभारत(५/३३/३३)

[1] पतञ्जलिकृत महाभाष्य

[1] कलिदासकृत मालविकाग्निमित्रम्(अं१ श्लोक.१७)

[1] मनुस्मृति(८/३००)

[1] शतपथब्रह्मण(५/१/६/१०)

[1] अथर्ववेद (११/६)

[1] तैत्तरीयोपनिषद्(१/११)

 

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समासशक्तिविमर्शः यस्मिन् समुदाये पदद्वयं   वा पदत्रयं   वा परस्परं समस्यते स   सम ु दायः   समासः    इति । प्राक्कडारा समासः [i] - समासस...