रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत
गोकुलप्रसाद त्रिपाठी
एम.ए.पीएच.डी.
रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत दोनों भागवत ग्रन्थ है । एक के प्रतिपाद्य मर्यादा
पुरुषोत्तम भगवान श्री राम हैं तो दूसरे के लीला
पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण । लौकिक चरित्र एवं व्यक्तित्व में भिन्न होने
पर भी अपनी भगवत्ता में राम और कृष्ण एक ही हैं ।दोनों के जन्म और कर्म दिव्य है ।
दोनों ग्रन्थों का तात्पर्य
भगवद्भक्ति द्वारा परमगति की प्राप्ति है । मानस यदि भगति करत बिनु जतन प्रयासा
। संसृति मूल भेदभ्रम नासा का उद्घोष करता है तो भागवत में भी वासुदेवे
भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यदब्रह्मदर्शनम्
की घोषणा है । जैसे मानस में नाम
प्रेम बिना राम प्रेम के बिना ज्ञान शोभा हीन बतलाया गया ज्ञान अशोभन है (सोहन राम
प्रेम बिनु ज्ञानू । करनधार बिनु जिमि जल
जानू) वैसे ही भागवत में भी नैष्कर्म्यप्यच्युत भाव वर्जितं न शोभते
ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।[i]
कहा गया है । मानस की भक्तिपद्यति जैसे
श्रुति सम्मत और ज्ञान वैराग्य संयुक्त है
(श्रुति सम्मत हरि भगति पथ संजुत विरति विवेक) तो भागवत भी इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।भक्ति
ज्ञान विरागाणां स्थापनाय प्रकाशितम् अर्थात
श्रुति सम्मत भक्ति ज्ञान और वैराग्य की स्थापना
के लिये प्रकाशत हुआ है । दोनों में ही भक्ति साधन भी है और साध्य भी
है । मानस यदि सल सुकृत फल रामसनेहू या सब कर फल हरि भगति सुहाई की भक्ति
साध्यता के साथ रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहिं ।संतत सुनिअ
राम गुनग्रामहि इत्यादि भक्ति साधना
का भी वर्मन करता हा तो भागवत मं
भी इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा
स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयोः । अविच्युतोऽर्थो कविभिर्निरूपिताः, यदुक्तमश्लोक
गुणानुवर्णनम् [ii]
आदि भक्ति साध्यता के साथ साथ तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवान हरिरीश्वरः । श्रोतव्यः
कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छता मयम्[iii]
आदि भक्तिसाधनता का भी वर्णन है । जैसे मानस का फल भक्ति हरि भक्ति की प्राप्ति
बतलाया गया है (जोएहिं कथहिं सनेह समेता,कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ।। होइहहिं
राम चरन अनुरागी ।कलिमल रहित सिमंगल भागी) वैसे ही श्रीमद्भगवत का माहात्म या फल
भी सच्छृण्वन पिपठन विचारण परो भक्तया विमुच्येतरः[iv]
कहा गया है ।
२- रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत दोनों में वेदादि के सार
भूत है । मानस यदि....वेद पुराण अष्टादस । छओ सास्त्र सब ग्रन्थन को रस या नानापुराणनिगमागम् सम्मत है तो भागवती कथा
भी ब्रह्म-सम्मित और वेदोपनिषद साराज्जाता भागवती कथा है । एक यदि शंकरमुखचन्द्र से स्नवित कथा सिधा (नाथ तवा नन ससि स्नवित कथा
सुधा रघुवीर श्रवन पुटन्ह मन पान करि नहिं अधात मतिधीर) है तो दूसरा निगम कल्पतरोगीलितं फलम् ।
शुकमुखाद द्रव संयुतम् । है
३- रामचरितमानस में सती चरित्र का जो वर्णन है उसमें और
भगवत् के चतुर्थ स्कंध के तृतीय से छठे
अध्याय तक वर्णित सती चरित्र में अत्यधिक साम्य है ध्रुव,प्रह्लाद,चित्रकेतू,अजामिल आदि अनेक भक्तादिकों
को उल्लेख मानस में श्रीमद्भागवत में उपलब्ध होने वाली उनकी अन्तर कथाओं के आधार
पर संभवतः हुआ है ।
४- श्री मदभागवत की अनेक उक्तियों का आत्मीकरण तुलसी के मानस में पाया जाता है-
जैसा-
श्री मद्भगवत १.
जन्माद्यस्य यतोन्वयादिं तरत श्चार्थेष्वाभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदाय
आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः तेजो वारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गो मृषा
धाम्ना स्वेननिरस्तकुहकं सत्यं पर धीमहि ।०१-०१-०१ २. तुलायाम
लवेनापि न स्वर्ग न पुनर्भवम् भगवत्सांगे सङ्गस्य मर्त्याना किमुताशेषः ०१-१८-१३ ३-
के नाम तृप्मेद्रसवित्कथायां महत्तमैकान्त
परायाणस्य-०१-१८-१४
४-नानुद्वेष्टि
कलि सम्राट सारंग इव सारमुक्
कुशलान्याशु सिद्धयन्ति नेतराणि कृतानि यत्
। ०२-१८-०७ ५-
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन मसाधिना
तत्फलं लभते सम्यक् कलौ केशव कीर्तिनात्। ६- तस्मात्सर्वत्माना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा
श्रोत्वयः कीर्तितव्यश्च स्मरतव्यो भगवान नृणाम् ०२-०२-३६
७- तस्माद् भारत सर्वत्मा भगवान हरिरीश्वरः
श्रोत्वयः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेचेछताभयम् ०२-०१-०५
|
श्री मद्रामचरितमानस यन्माया वशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवः
सुराः यत्सत्वादमृषैवभाति सकलं रज्जौ यथाहेभ्रमः यत्पादप्ठवमेकमेवहि
भवांमोद्योस्तितीर्षावताम् वन्देऽहं तमशेषकारण परं रामाख्यामीशं हरिम् । (बा.का.अंतिम मङ्गल श्लोक)
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग । तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव संतसंङ्ग
।।
रामचरित दे सुनिह अघाही । रस विशेष जाना तिन्ह नाही ।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा । मानस पुण्य होहि नहि पापा ।।
नहि कलि करम न भगति विवेकु । राम नाम अवलम्बन एकू ।।
रामहिं सुमिरिअ गाइअ रामहि । संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ।। सब कर मत खग नायक एहा । करिअ राम पद पंकज नेहा ।। मम गुन ग्राम नाम रत गतम ममता मदमोह । ताकर सुख सोई जानइ परानन्द संदोह ।। वचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं निकाम् । तिन्ह के ह्दयकमल महुँ करहुँ सदा
विश्राम् ।। |
८-पातालमेतस्य हि पादमूलं सत्यं तु शीर्षाणि सहस्त्रशीर्ष्णः ९- दुरन्त सर्गो यदपांगमोक्षः १०
- द्यौराक्षिणी चक्षुरमूत्पतंगः ईशस्य केशान्विन्दुरम्बुहान् ।
११-हासो जनो मादकरीचमाया
१२- इंद्रादयोबाहव आहुरूस्त्राः
१३- नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरूहाणि कुक्षि समुद्रा गिरयोऽस्थिसद्यः ।
१४- नास्त्यदस्त्रौ परमस्य नासे ।
१५- पक्ष्माणि विष्णोरहती उमं च ।
१६-
कर्ण्यै दिशः (श्रोत्रममुष्यशब्दः)
१७- अनन्त वीर्य श्वासितं मातरिश्वा
१८-(व्राडोत्तीरोष्ठो
)ऽधर एव लोभो द्रष्टा यमः (स्नेहकला द्विजानि) १९-
मुखमाग्नोरिद्धः रस एव जिह्वा
२०-
कर्म गुण-प्रवाह इत्यादि (०२-२६ से ३८) |
पद पाताल सीस अजधामा ।
अपर लोक अंग अंग विश्रामा ।। भ्रकुटि बिलास
भयंकर काला ।
नयन दिवाकर कच घनमाला ।।
माया हास-बाहु दिकपाला ।।
रोम राजि अष्टादस मारा । अस्थि सैल सरिता नस जारा ।। उदर उदधि.....
जासु घ्रान आस्विनी कुमारा ।
निसि
अरु दिवस निमेश अपारा ।
श्रवन दिशा दश वेद बखानी ।
मारुत स्वास (निगमनिजबानी)
अधर लो भ जय दसन कराला ।।
आनन
अनल अंबुपति जीहा ।
उत्पति
पालन प्रलय समीहा ।। |
२१- सर्वात्मनोऽन्तः
करणं गिरित्रम्, अव्यत्तम मार्हु हृदयं मनश्च स चन्द्रमा सर्वाविकार कोशः २२- बिले बतोरुक्रम विक्रमान् ये न श्रृण्वन्तो
कर्णपुटे नरस्य ०१-०१-२० २३-जिह्वा सती
दादुरि केव सूत न चोपगायत्मुरुगाय गाथा
०२-०३-२० । २४- बार्हायिते ते
नयने नाराणां लिङ्गानि विर्ष्णोर्न निरीक्षतो ये ०२-०३-२२ । २५-तदश्मसारं
हृदयबतेदं यद् ग्रृह्यमाणैर्हरि नामधेयैः न विक्रियेताऽथ यदा विकारो नेत्रे जलं
गात्र रुहेषु हर्षः ०२-०३-२४ २६-आत्मारामाश्चमुनयो
निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे कुर्वन्त्य हैतुकीं भक्तिम् इत्थं भूत गुणे हरिः
०१-०७-१० । २७- यैः कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजि तात्मभिः
।तत्कुलं प्रदहत्याशु सानुबन्धं सुचार्पितम् । २८- तावद भयं
द्रविणगेहसुह्यनिमित्तं ।शोकस्पृहा परिभवो
विपुलश्च लोभः । ताव भवेत्यसदवग्रह अर्तिमूलम् या
वन्नतेऽघ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ।
२९- ततो
वर्णाश्चत्वारस्तेषां ब्रह्मण उत्तमः । ब्रह्मणेष्वपिवेदज्ञो ह्यर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः
।। श्रेयान्स्वकर्मकृत
मुक्तसङ्गस्तो भूयानदोग्धा धर्ममात्मनः
तस्मान्मप्यर्पिताशेष क्रियार्थात्मा
निरन्तरः
|
अहंकार सिव बुद्धि अज ।मन ससि चित महान ।। जिन हरि कथा सनी नहि
काना ।श्रवणरन्ध्र अहि भवन समाना ।।
जो नहि करइ राम गुन गाना ।जीह सो दादुर जीह
समाना ।। नयनन्हि सन्त दरस
नहिम देखा । लोचन मोर पंख कर लेखा ।। कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती।सुनि हरि चरित न जो
हरबाती ।। जीव मुक्त ब्रह्म
पार चरित सुनहि तजि ध्यान । जे हरि कथा न करहिं
रति तिन्ह की हिय पाखान ।। मुनि तापस जिन ते
दुःख लहही ।ते नरेस बिन पावक दहही ।। राममता तरुन तमी
अँधियारी । राग द्वेष उलूक सुखकरी ।। तब लागे बसति जीव मन माहीं । जब लगि प्रभु
प्रताप रवि नाहीं । (१)
तब लगि हृदय बसत खल नाना ,लोभ मोह मच्छर मद नाना । जब लगि उर न बसत
रधुनाथा,धरे चाप सायक दुँहु हाथा ।। सबते अधिक मनुज
मोहिं भाए,तिन्ह महुँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी । तिन्ह महँ निगम धरम अनुसारी , तिन्ह महँ प्रिय
विरक्त पुनि विज्ञानी ।।
|
मय्यार्पितात्मनः
पुंसो पश्यामि परं भूतमकर्तुः समदर्शनात् । ०३-२९-३१-३३
३०- अहो बतश्वुचोऽतो
गरीयान् याज्जह्याग्ने ,वर्तते नामतुभ्यम् तेपुस्ते जुहुवः सस्नुरामा
ब्रह्मनूचूर्नामगृणन्ति येते ०३-३३-०८
।
३१- अहाहुता
अप्यामियन्ति सौह्रदं भर्तुर्गुरोर्देहकृतश्च के तनम् ।०४-०३-१३
३२- तामागतां तत्र न
कश्चना प्रियद् विमानितां यज्ञ-कृतो भयज्जनः ०४-०४-०७ ३३- कर्णौ पिधाय निरयाद्यद कल्प ईशे
धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने । छिन्द्यात् प्रसह्यरुशतीमसती
प्रभुश्चेज्जिह्वमसूनपि ततो विसृजेत्सधर्मः ०४-०४-१७
३४-
वासुदेवे भगवति मात्र योगः समाहितः सघ्रीचीनेन वैराग्यं ज्ञान च जनायिष्यति ।
सोऽचिरादेव
राजर्षेस्यादच्युत कथाश्रयः ।श्रृण्वन्तः श्रद्दधानस्य नित्यदास्यादधीयतः ।
३५-तज्जन्म
तानि कर्मणि तदायुस्तन्मनो बचःल नृणां येनेह विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ।
३६-रहू
गणैतत्तपसानयाति न चेज्जया निर्वयणाद गृह्यद्वानच्छन्दसा नैव जलाग्नि
सूर्येर्विना महत्पादरजोभिषेकम् यत्रोत्तमश्लोकगुण्नुवादः प्रस्तूयते ग्राम्यकाथाविधातः निषेव्यतेऽनुदिनं मुमुक्षोर्भातिं सतीं यच्छति
वासुदेवे । ३७-
नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाव वर्जितं न शोभते ज्ञान मलं निरञ्जनम् ।
३८-एतावनेव
लोकेऽस्मिन् पुँसा धर्मः परः स्मृतः भक्तियोगे भगवति तन्नाम ग्रहणादिभिः ०३-०३-२२
।
३९-भवसिन्धुष्ठयो
दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ०१-०६-३५।
४०-आत्मारामाश्च
मनयो निर्ग्रन्था अप्यसक्रमे । कुर्वन्त्य हैतुकी भक्तिमित्थं भूतगुणो हरिः ।
४१-ब्रहुः
स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ०१-०१-१८
४२-प्रायेणाल्पायुषः
सभ्य कलावास्मिन् युगेजनाः
४३-तस्मादेकेन
मनसा भगवान सात्वतां पतिः श्रोतव्य कीर्तिव्यश्च ध्येयः पूज्ययश्च नित्यदा ।
४४-
यथा नमसि मेघौघौ रेणर्वा पार्थवोऽनिलो । एवं दृष्टरि दृश्यत्वमारोपितः
मबुद्धिभिः ।
४५-
न तद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित्
तद्वायसंतीर्थमुशन्ति मानसा य यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्ष्याः ०१-०५-१०
४६-ईशस्य
हि वशे लोको योषा दासमयी यथा ०१-०६०७
४७-माया
जगनिकाच्छन्नमज्ञा धोक्षजमव्ययम् ।म लक्ष्यते मूढदृशा नटो नाटमधरो यथा ०१-०८-१९
४8-यथा
पंकज पंकाम्भ ०१-०८-५२ ।
४९-युष्माद्विधान्
मृगये ग्राम सिंहन् ।
५०-यथा
ह्यप्रति बुद्धस्य प्रास्वापो बह्यनर्थभृत
स एव प्रतिबुद्धस्यनवै मोक्षाय कल्पते । ५१-
चेष्टा विभ्रूम्नः खलुदुर्विभाव्या
५२-तस्मिस्तुष्टे
किमप्राप्यं जगतामीश्वरेश्वरे ,लोकाः सपाला ह्योतस्मै हरन्ति बहिमाहताः ।
|
तिन्ह ते पुनि मोहि हि प्रिय निजदासा , जेहि गति
मोरि न दूसरि आसा । मोहि
सेवक सम प्रिय नाही , समदरसी इच्छा कछु नाही हरष सोक भय नहि मन माही ,अस सज्जन मम उर वस्
कैसे । लोभी हृदय बसत धन जैसे ।।
स्वपच सबरख सजमन जड
पाँवर कोल किरंति ,राम कहत पावर परम होत भुवनाविख्यात ,सकल सुकृत फल रामसनेहू ।
जदपि मित्र प्रभु
पितु गुरु गेहा ,जाइअ बिनु बोलेहुण न सँदेहा ।।
पिता भवन जब गई भवानी
,दच्छ त्रास काँहु न सनमानी ।
संत संभु श्रीपति
अपवादा,सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा । काटिअ तासु जीभ जो बसाई, श्रवन मूदि न त
चलिअ पराई ।।
बिनु सत्संग न हरि
कथा,तेहि बिनु मोह न भाग ।मोह गएँ बिनुराम पद उप जन दृढ अनुराग ।।
सूब कर फल हरि भगत सुहाई,सो बिनु संत न काहूँ पाई जे एहिं कथहिं सनेहू
समेता,कहिहहिं सुनिहहिं समुझि समेता ।। होइहहिं राम चरन
अनुरागी,कलिमल रहित सुमंगल भागी । देह धरे कर यह फल
भाई,भजिअ राम सब काम बिहाई सोई सर्वज्ञ गुनी
सोई ज्ञाता,सोइ महि मंडित पंडित दाता धर्म परायन सोइ कुल
त्राता,राम चरन जाकर मन राता
सूब कर फल हरि भगत सुहाई,सो बिनु संत न काहूँ पाई बिनु सत्संग विवेक न
होई,संन्तसंग अपवर्ग कर । बिनु सतसंग न हरि
कथा,तहि बिनु मोह न भाग । मोह गये बिनु राम
पद,उपज न दृढ अनुराग ।
सोइ न सप्रेम बिनु
ज्ञानू,करनधार बिनु जिमि जग जानू
धर्म परायण सोइ कुल त्राता,रामचरन जाकर मन राता सो सुख धरम करम जरि
जाऊ,जहँ न राम पद पंकज भाऊ । भवसागर चह पार
जोपाना राम कथा जा कहँ दृढ नाका
जीवन्मुक्त ब्रह्मपर
चरित,सुनहिं तजि ध्यान। अस विचारि पंडित
मोहि भजही पायेहुँ ज्ञान भगति नही तजही ।
श्रोता सुमति सुसील
सुचि कथा रसिक हरिदास , पाई उमा अति
गोप्यमपि सज्जन करहि प्रकास ।।
लघु जीवन संवत पंच दास ।
रामहि गाइअ सुमिरिअ
रामहिं,संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहिं । नर विविध धर्म अधर्म
बहुमत साकप्रद सब त्यागहू , बिस्वास करि कह दास
तुलसी राम पद अनुरागहू ।।
उमा रामविषयक अस मोहा,
नभ तम धूम धूरु जिमी सोहा । जथा गगन घन पटल
निहारी,भाँपेउ भानु कहहिं कुविचारी ।
राम नाम गिरा न
सोहा, भनिति विचित्र सुकवि
कृत जोऊ,राम नाम बिन सोह न सोऊ ।
उमा दास जोषित की
नाई,सबहि नचावत राम गुसाई।
जथा अनेक वेष धरि
नृत्य करे नट कोइ, सोइ सोइ भाव देखावई
आप न होवइ सोइ ।
मल का जाइ मलहि के
धोर ।
तुम्हसे खल मृग खोजत
फिरही ।
जो सपने सिर काटे
कोई,बिनु जागे न दूर दुख होई । चरित राम के सगुन
भवानी,तर्किन जाहि बुद्धिमन बानी ।
हरि प्रसाददुर्लभ कछु नाही जापर कृपा रामरै
होई तापर कृपा करहिं सब कोई । |
थोडे से उपर्युक्त उद्हरण केवल दिग्दर्शनार्थ है । इस प्रकार के सैकडों
ही समानर्थक वचन श्रीमद्भागवत और रामचरित
मानस में आशय साम्य वाले मिलते है ।
५-जिस प्रकार रामचरितमानस में सत्संग की महिमा स्थान स्थान पर गाई गई है,उसी
प्रकार श्री मदभागवत में भी सतसंग का
महत्व यत्र तत्र सर्वत्र बतलाया गया है । मानस में भगवान शंकर ने उमा से यह कहा है
कि उमा जगि जय जय ज्ञान तप नाना व्रत मख नेम राम कृपा नहिं तासि करहिं जसि
निष्केवल प्रेम और एक अन्य स्थल पर उस निष्केवल प्रेम को सत्संग के अधीन बतलाया
गया है –सबकर फल हरि भगति सुहाई ।सो बिनु
सन्तन काहूँ पाई । अस बिचारि जोडकर सससंगा राम भगति तोहि सुलभ बिहंग(उ.का.१२० वें
दोहे के पहले की चौपाई) श्रीमद्भागवत में भी भगवान श्रीकृष्ण उद्भव से सपष्ट कहते
हैः-
न साधयति मां योगो न सांख्य धर्म उद्भव ,
न स्वाध्यायस्तपरस्तपस्त्यागो यथा
भक्तिर्ममोर्जिता ।११-१४-२०
और - न रोधयति मां योगो न
सांख्यं धर्म एव च ,
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न
दक्षिणा ।
व्रतानि यज्ञश्छंदांसि तीर्थानि नियमायमाः
यथावरुन्धे
सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम् ।। ११-१२-२०
सत्संग से भगवान धिरते है और भक्ति से सद्य
जाते है श्री मद्भागवत ११-१२-३-१३ का सार ही
गोस्वामी जी ने मानस में इन पक्तियों में दे दिया है-
जलचर थल चर नभचर नाना । जे जड चेतन जीव
जहाना ।
मति कीरति गति भूति भूति भलाई ।जब जेहि जतन
जहाँ जेहि पाई ।
सो
जानब सतसंग प्रभाऊ ।लोकहुँ वेदन आन उपाऊ ।
६- श्री मद्भागवत और रामचरित मानस दोनों में
तप को समान महत्व दिया है । भागवत
०२-०९-२२-२३ में भगवान ने ब्रह्मा जी से जो यह कहा है- तपो मे हृदयं
साक्षादात्माहं तपसोऽद्य । सृजामि तपसे वैदं ग्रसामि तपसा पुनछ । विभार्मि तपसा विश्वं वीर्यं में दुश्चरं तपः –लगभग उसी आशय का कथन पार्वती स्वप्न वर्णन और राजा प्रतापभानु की कथा में है ।