गुरुवार, 3 मई 2018

अथर्ववेद-परिचय(खण्ड-चतुर्थ)



अथर्वन- अर्थात गतिहीन या स्थिरता से युक्त योग, निरुक्त के अनुसार  थर्व् धातु  गत्यर्थक है अतः गतिहीन या स्थिर जो है वह अथर्वन है ।
गोपथ ब्रह्मण में कहा गया है- अथ अर्वाक् अर्थावाक्, अथर्वा  , इसका तात्पर्य है  समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना । अथर्वेद के अनेक नाम प्रचलित है-
१-   अथर्वेद (अथर्वन् ऋषि के नाम पर )

२-  आंगिरस वेद

३-  अथर्वाङ्गिरस वेद

४- ब्रह्मवेद

५- भृग्वङ्गिरस वेद

६- क्षत्रवेद

७-                     भैषज्यवेद

८-  छन्दोवेद

९-  महीवेद

अथर्ववेद के ऋत्विक् को ब्रह्म कहा जाता है । इस वेद के प्रमुख देवता सोम मानें जाते है । अथर्ववेद के आचार्य सुमन्तु है ।

अथर्ववेद शाखाएं एवं प्रतिपाद्य विषय

महर्षि पतञ्जलि ने अपने ग्रन्थ महाभाष्य में   ‘’नवधा
 ऽऽथर्वणो वेदः’’  ऐसा कहकर ९ शाखाओं का उल्लेख किया है ।
 प्रपञ्चहृदय, चारणव्यूह और सायण  की अथर्ववेद भाष्य भूमिका में  भी ९ शाखाओं का  उल्लेख प्राप्त होता है ,परन्तु कुछ नामों में भेद मिलता है।
अथर्ववेद की नौ  शाखाएं निम्न है-

१-  पैप्पलाद

२-  तौद

३-  मौद

४- शौनकीय

५- जाजल

६- जलद

७-                     ब्रह्मवेद

८-  देवदर्श

९-  चाकणवैद्य

सम्प्रति केवल दो शाखाएं शौनक एवं  पैप्पलाद  ही उपलब्ध है

शौनकीय शाखा-  इसमें कुल २० काण्ड एवं ७३० सूक्त ५९८७ मंत्र है  , इसमें सबसे बडे काण्ड २० में ९८७ मंत्र है ।   काण्ड में  ४५४ मंत्र है    १९ काण्ड में  ४५३ मंत्र है ,इसमें सबसे  छोटा काण्ड १९ है जिसमें मात्र  ३० मंत्रो का संग्रह है ।

विशेष- अथर्ववेद भी अग्निपूजा  एवं यज्ञ में विश्वास रखता है । इयमें यज्ञ का प्रतिपाद्य स्वास्थ्य आध्यात्म है ।  माना जाता है अथर्वा ऋषि ने ही सबसे पहले अग्नि का अविष्कार किया है । इसके अनुसार यज्ञ  वैदिक दर्शन का  सबसे पुष्ट एवं  प्रामाणिक स्त्रोत है । सभ्यता एवं संस्कृति के दृष्टि से भी सबसे उपयोगि है । यह सार्वजनिक जनता का वेद है । यह वेद साहित्य समाज का दर्पण है ।
अथर्ववेद के सूक्तो को  ३ वर्गों में विभजित किया गया है ।

१-   अध्यात्म प्रकरण

२-  अधिभूत प्रकरण

३-  अधिदैवत प्रकरण

इसकी विषय वस्तु  को  ८ विभिन्न वर्गो में विभाजित किया गया है जो निम्नांकित है –
१-  भैषज्य सूक्त

२-  आयुष्य सूक्त

३-  पौष्टिक सूक्त

४- स्त्रिकर्मसूक्त

५- प्रायश्चितसूक्त

६- ब्रह्मण्यसूक्त

७-     राजकर्मसूक्त

८-  अभिचारसूक्त

प्रतिपाद्य विषय-  १ काण्ड में  विविध रोगों की निवृति, पाशमोचन, रक्षोनाशन, शर्मप्राप्ति का वर्णन है ।  २ काण्ड में  रोग शत्रु एवं कृमिनाशन दीर्घायु वर्णन ,३ काण्ड में  शत्रुसेना सम्मोहन, राजा निर्वाचन , शालानिर्माण ,कृषि एवं  पशुपालन का वर्णन है । ४ काण्ड में ब्रह्मविद्या, विषनाशन, राज्याभिषेक, वृष्टि,पापमेचन, व्रह्मौदन का वर्णन है । ५ काण्ड में  ब्रह्मविद्या , कृत्यपरिहार, ६ काण्ड में  दुःखस्वप्न नाशन, अन्नसमृद्धि, ७ काण्ड में आत्मा का वर्णन ८ काण्ड में  प्रतिसरमणि वर्णन,विराट ब्रह्म का वर्णन ९ काण्ड में  मधुविद्या ,पचौदन अज, अतिथि सत्कार , गाय का महत्व ,यक्ष्म नाशन, १० काण्ड में  कृत्या निवारण, ब्रह्म विद्या एवं  वरणमणि का वर्णन , सर्पविषनाशन, एवं ज्येष्ठ ब्रह्म का वर्णन है ,११ काण्ड में ब्रह्यौदन रुद्र एवं  ब्रह्मचर्य का वर्णन है ,१२ काण्ड में  पृथ्वी सूक्त भूमि का महत्व वर्णन, १३ काण्ड में  अध्यात्म  वर्णन है ,१४ काण्ड में  विवाह संस्कार ,१५ काण्ड में  व्रात्य ब्रह्म  का वर्णन  १६ काण्ड में  दुःखमोचन, १७ काण्ड में  अभ्युदय प्रार्थना सम्मोहन वर्णन १८ काण्ड में  पितृमेघ वर्णन १९ काण्ड में  यज्ञ नक्षत्र , छन्दों के नाम , राष्ट्र का वर्णन २० काण्ड में  सोमयाग वर्णन , इन्द्र स्तुति, कुन्ताप सूक्त, परीक्षित वर्णन  प्राप्त  होता है ।

                                                                                                 शिव त्रिपाठी
                                                                                      गुरुवासरः ०३/०५/१८

                                                                                                       क्रमशः 
  


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